Please click here

INSTALL KULASYA APP

भड़के भईया का संस्मरण......
इस्सर बईठ दलिद्दर भागे

जब भी ऊख के खेतों की ओर जाते थे तो रसीले गन्ने देख कर उसे तोड़ने की इच्छा करती किन्तु बाबूजी की हिदायत कि एकादशी से पहले उख तोडना पाप है, याद कर मन मसोस कर रह जाते। ग्यारस के दिन गन्ने को सजाया जाता था और उनके बीच #वैदिक_रीति से विवाह कराया जाता। चरखी गाड़ी जाती,गन्ने की पेराई का औपचारिक शुरुआत की जाती। रस का सर्वप्रथम भोग #ग्राम_देवी को लगाया जाता था उसके बाद सारे गाँव के लोगों के साथ गन्ने का रस पिया जाता।

ताजे निकलते रस में दही डाल कर गरम गरम धनिया आलू के साथ पीने का आनंद अब केवल स्मृतियों में है। रस से राब बनायी जाती, गुड़ बनता। गुड़ बनना व्यक्तिगत नही था, आस पास के पट्टीदार, आने जाने वाले सब गर्म गर्म भेली लेकर जाते ही थे।

#तुलसी_माता के लिए चुन्नी आती थी, उसे ओढ़ा कर तुलसी के नीचे एक महीने दिया जलाया जाता था। एकादशी से एक दिन पूर्व #सूप की खरीददारी की जाती थी। सूप की गांठे हम लोग गिनते, सुबह चार बजे गांव की सारी महिलाये गन्ने से पुराने सूप पीटते हुए "इस्सर बईठ दलिद्दर भागे " कहती हुयी घर से खेत तक जाती थी वहीं पर सूप छोड़ देती थीं। सूप पीटने से प्रेत, दरिद्र सब भाग जाता है।

सूप पीटने के पीछे की एक और कथा पितरों से जुड़ी है। पितर पाख के बाद यदि कोई पितर अपने लोक जाने से रह गया हो तो सूप की आवाज एक संकेत होती थी कि महाराज अपने थाने पवाने चले जाओ।

हम बच्चों के बीच एक और मिथ (आप इसे बच्चों का सत्य भी कह सकते है ) था कि जिस बच्चे के मुह में दाने या कुछ और हो गया है अगर वो गांव की सबसे बुढ़िया का सूप छीन कर भागे तो बुढ़िया जितनी गाली देगी चेहरे की सुंदरता उतनी ही बढ़ेगी। यह काम एक बार हमारे बुआ के लड़के ने किया था। सुबह बात पता चल गयी तो (बच्चे तब झूठ नही बोला करते ) उनकी इतनी पिटाई हुयी कि बेचारे काले से लाल हो गये। सच में उस वक्त उनका चेहरा बिना किसी क्रीम के लोहित हो गया था।

आज गांव से युवा गन्ने के जैसे गायब होकर शहर में किसी चौराहे पर गन्ने को जूस निकालने वाली मशीन जैसे बैठे हैं, यह बात आज खटकती है, गन्ने के उस पेड़ को काटा नही जाता था जिसकी पूजा होती थी पर आज उसे काट कर लोग पूजा कर रहे हैं। लोक की निर्दोष यमुना शहरों में आकर आकर सभ्यता के गंदे नाले में बदल जाती है, यही स्थिति आज त्यौहारों की है। नगर का अहंकार और संकुचित मन लोक की विशालता को संभाल नही सकता। वे त्यौहारों को भव्य बनाने के चक्कर मे उनकी आत्मा खत्म कर देते हैं। अधिक भव्यता अश्लीलता होती जा रही है। देओठनी एकादशी आने वाली है, आप बधाइयां देते हैं, बैकुंठ नाथ के जागरण की बात करते हैं पर अपने अंदर इस्सर के स्थापत्य और दरिद्र को निकालने के लिए मात्र खानापूर्ति करते हैं।

जहाँ ईश्वर है वहाँ दारिद्र्य नही हो सकता। दरिद्रता का अर्थ यह नही कि आपके पास दूसरों से कम है बल्कि होने के बावजूद क्या पाएं क्या हड़प लें, दस गाड़ी है तो इग्यारहवी क्यों नही है जैसी आत्मिक वंचना में जीने से है।

#इस्सर_बईठ_दलिद्दर_भागे