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Anonim
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ऋषि वेदव्यास ने माता सत्यवती से कहा - मां,अब आपके वन जाने का समय आ गया है।धृतराष्ट्र नेत्र हीन है और राजा बन गया है।हस्तिनापुर में ऐसा होने वाला है जो आप देख नहीं पाएंगी। सत्यवती ने पूछा कैसा कष्ट आएगा पुत्र ?व्यासजी ने कहा कि उसका निर्धारण समय कर चुका है।समय से पहले भविष्य जानना उचित नहीं।समय को अपना काम करने दीजिए।यही समय है जब भावी कष्ट के महाबोध से पहले ही आप वनागमन कर जाएं।

कितना सच कहा था।कष्टों से भरा महासागर देखने से पहले ही नियति भोग रही गंगा भी चलीं गईं और सत्यवती भी। चले तो कुछ भोगकर विदुर भी गए थे। पर सब कुछ जानने वाले भीष्म नहीं गए।उन्होंने नियति को भोगना और दर्द को झेलना स्वीकार किया।गंगा पुत्र थे भीष्म,महापराक्रमी पिता शांतनु के महाप्रतापी पुत्र भीष्म।माता को दिए वचन में भी बंधे थे।तो सब कुछ जानने के बाद भी कालचक्र में बंधे रहे, अभिशप्त समय की प्रतीक्षा करते रहे। भीष्म वह सब देखते रहे भोगते रहे जो विदुर न देख पाए।

महाभारत काल में सुख किसने भोगा ? शायद किसी ने भी नहीं।द्वापर युग था ही युद्ध अनिष्ट और वियोग के लिए । देखिए गंगा हस्तिनापुर आईं और गईं। सत्यवती का नाम पहले मत्स्यगंधा था। ऋषि पाराशर के संयोग से वे दुर्गंध मुक्त हुईं।मत्स्य देश के राजा की पुत्री का नाम हुआ सत्यवती।पाराशर से उन्हें एक पुत्र कृष्णद्वैपायन हुए।उन्होंने ही कालांतर में वेदों तथा महाभारत का संपादन किया।गंगापुत्र देवव्रत भीष्म ऐसे पुत्र थे जिन्होंने पिता शांतनु का विवाह सत्यवती को यह वचन देकर कराया कि उन्हीं का पुत्र हस्तिनापुत्र का राजा बनेगा।नई मां को दिया वचन निभाने को भीष्म ने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया।उसे पूरा निभाया भी।

वेदव्यास ने मां को वन भेजा चूंकि वे उन्हें बिछोह ही बिछोह का यह महादर्द नहीं देना चाहते थे।वेदव्यास जो जानते थे वह श्रीकृष्ण भी जानते थे।द्वापर का वह कालखंड गौर से देखिए।कृष्ण युद्ध में होते हुए भी नहीं थे।लेकिन उन्हें भी अपने परिवार में बिछोह ही बिछोह देखना पड़ा।द्वापर शांति के लिए था ही नहीं।वैसे सच कहें तो त्रेता में राम भी कहां चैन ले पाए।उनका पूरा जीवन भी मिलन और बिछोह के बीच ही जूझता रहा ।

भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था।उन्हें जाना होता तो वे द्यूतक्रीडा के समय शकुनि का महापाप देखकर चले जाते।जाना होता तो भरी सभा में निर्वस्त्र की जा रही द्रौपदी की पुकार सुनकर चले जाते।वे चाहते तो वे एक हुंकार से यह सब रोक देते।लेकिन सत्यवती को दिए गए वचन को उन्होंने भारी समझा और अपमान का बहता सागर देखते रहे।महर्षि वेदव्यास जिस महासत्य को जानते थे,तपस्वी भीष्म भी जानते थे।उन्होंने काल को बहने दिया,उसके रस्ते में बाधक नहीं बने।

तो मित्रों द्वापर का अंत लाजमी था, अपार दर्द सहते हुए भीष्म भी देखते रहे। द्वापर को कलियुग की ओर जाते हुए विष्णु के अवतार मायावी श्रीकृष्ण भी देखते रहे।वेदव्यास ने ठीक ही कहा था कि महाकाल को अपनी यात्रा पूरी करने दीजिए।इस महाकाल में राम भी विलीन हुए,कृष्ण भी और दशावतारों में से सभी नौ अवतार भी।अब कल्कि आगमन की प्रतीक्षा करते रहिए।जैसा कि ऋषिवर वेदव्यास ने कहा था - समय को यात्रा करने दो मां,आप देख नहीं पाओगी,आपके जाने का यह सही समय है।तो मित्रों काल के प्रवाह में बहते रहिए।दृष्टा बने रहना ही मानव नियति है।