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Anónimo
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मुझे अखाड़ों, मठों से कहना है कि जब समाज पर संकट आए आप समाज को बचाने ऐसे दौड़ो जैसे मां अपने बच्चे को संकट में देखकर दौड़ती है। अपने कैंप, दरवाजे, कमरे घायलों के लिए खोल दो, साधक और सेवादार घाव साफ करें, भोजन कराएं। समाज उज्ज्वल हो जाएगा, उठ खड़ा होगा।

आपकी भाषा संत की भाषा होनी चाहिए, हृदय को छूते ही उसे परिवर्तित कर देने की क्षमता लिए हुए उद्गार होने चाहिए।
आप अंगुलिमाल को साधु बनाते थे, स्वयं अंगुलिमाल जैसा वचन कहोगे तो साधुता स्रोत कौन बनेगा?

धन, वैभव, सिंगार, सेमी पॉलिटिकल होना आपको शोभा नहीं देता, एक सामान्य मनुष्य गलत करे तो उसका प्रभाव उतना नहीं होता जितना आपकी गलती से होता है। आप अपने पक्ष में कितने भी शास्त्र के उदाहरण दे दें लेकिन सेवा के बिना सब व्यर्थ है। सेवा का अर्थ बड़े बड़े अस्पताल बना देना स्कूल कॉलेज बना देना नहीं होता, सेवा का अर्थ सेवा ही होता है।

सेवा सबसे कठिन धर्म है और यह तय मानिए कि ज्ञान और परम्परा को सेवा ही बचाएगी। बिना सेवा के सब छूंछ बात है।

मेरा सभी प्रोफेसर, वैज्ञानिक, वकील, डॉक्टर, सिपाही, पायलट, खलासी, कलेक्टर, चपरासी क्लर्क , प्रधान से राष्ट्रपति तक अनुरोध है कि नौकरी और धन कमाना अलग विषय है, नौकरी के अलावा जीवन में सेवा को अनिवार्य करें,

यही सेवा आपके परिवार, बच्चे और समाज को बचाएगी।
Pawan Vijay