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익명의
22 안에

यह शर्मसार करनेवाली खबर है। दुःखद और अंतर्मन को झकझोरनेवाली कि आज लोग कितना खुदगर्ज होते जा रहे हैं। लोग खुद में सिमट रहे हैं, जिससे नाते- रिश्ते सब पर विराम लग रहा है। रिश्ते मर रहे हैं, तभी तो ऐसी घटनाएं आ रही है इसी समाज से सामने।
डॉ प्रेम दास, हजारीबाग के एक विख्यात सर्जन, कोई सोच भी नहीं सकता था कि उनकी लाश 48 घंटों तक अपनों की आस में अस्पताल के मोर्चरी में पड़ी रहेगी। दो बेटियां, एक अमेरिका में और दूसरी मुम्बई में। अन्य नाते- रिश्तेदार बिहार- झारखंड में। अमेरिका से बेटी नहीं आयी तो मुम्बई से बेटी के बीमार होने का खबर आ गया। अन्य अपने भी नहीं आये। 48 घंटों के मोर्चरी में अपनों के इंतज़ार के बाद 77 वर्षीय डॉक्टर प्रेमदास का अंतिम संस्कार उनकी पत्नी प्यारी सिन्हा और कुछ साथी चिकित्सकों ने अज्ञात लाशों का दाह संस्कार करनेवाले समाजसेवी नीरज कुमार की मदद से खिरगांव शमशान घाट पर करा दिया।
यह खबर रुलाने वाली है, क्योंकि अपने जिन बच्चों को बड़ा करने पढ़ाने- लिखाने और उन्हें उनके मुकाम तक पहुंचाने में मां- बाप जीवन भर यज्ञ करते हैं, कुछ परिवार में उसका फल ऐसा कटु भी मिलता है। वैसे ऐसी कहानी की आज भरमार है। हजारीबाग क्या, राज्य और देश क्या, महानगरों की चकाचौंध में सैकड़ों बच्चे अपने बूढ़े मां- बाप को छोड़कर फुर हो चुके हैं, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ। यह भूल चुके हैं कि जैसी फसल लगायेगें, वैसी काटेंगे। उनके बच्चे भी वही करेंगे आगे चलकर।
साभार
Vivek Singh के वॉल से

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