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शारीरिक सुखों का भोग, खासकर #कामोपभोग की तुलना कुत्ते द्वारा चबाई गई हड्डी से की गई है।
जैसे कुत्ता हड्डी चूसता है और स्वयं के तालु से रिसते घाव को हड्डी का सत्व समझकर रस लेता है वैसे ही कामोपभोग में रत स्त्रीपुरूष अपने ही क्षीण होते ओज को आनंद समझकर परस्पर केलि करते हैं।
यह तो हो गई साधु महात्माओं की बात।
गृहस्थ जनों के लिए आयुर्वेद में अवस्था विशेष में ऋतु विशेष में भोग को औषध बताया है।
उत्तम वाजीकारक खाद्य, पर्याप्त संतुलित व्यायाम और उत्साह अथवा संघर्ष मय जीवन के लिए उत्तम गृहस्थी हेतु इसे आवश्यक बताया गया है।
दोनों ही, दम्पत्ती की सहमति एवं अनुराग हो तो वह हड्डी भी एक शानदार डिश में बदल जाती है ऐसा आधुनिक समीक्षक भी मानते है।
परन्तु आधुनिक वातावरण की सृष्टि ऐसी हुई है, दृश्य उपकरणों और बाजारू सलाहकारों ने ऐसा चित्रण किया है कि चारों तरफ असंतोष और संत्रास का ही कोलाहल है।
हर व्यक्ति दुःखी। अस्थायी सम्बंध। कृत्रिमता में झूठा सुख तलाशते अर्धविक्षिप्त, असंयमित, सामर्थ्यहीन होते हुए भी बड़े बड़े सामर्थ्य का दावा करने वाले, मृगतृष्णा के पीछे भटकते, श्रमविहीन, कलाविहीन, नकली लोगों से समाज भर गया है।
भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या खतरनाक रूप से इसके चंगुल में है जिसके अनेक आयाम है। सन्तति उत्पन्न से भिन्न केवल विषय केंद्रित, भोग केंद्रित और बाह्याचार केंद्रित इस पुरुषार्थ (काम) में इतने छिद्र हो गए है कि भविष्य में इसमें से एक बड़ी खलबली होने वाली है।
जैसे इंटरनेट पर रील देखते समय हम किसी भी एक से संतुष्ट नहीं होते और आगे बढ़ जाते हैं कि सम्भवतः इसके बाद वाली थोड़ी ठीक आये, वैसे ही मनुष्यों ने भोग के ऑब्जेक्ट को समझ लिया है।
मानव चित्त की यह विशेषता है कि एक निश्चित समय तक आप किसी भी चेतन या जड़ के सम्पर्क में रहो, उससे राग हो जाता है। पत्थर, पशु पक्षी, मूर्ति, वृक्ष इत्यादि कुछ भी आपका अपना हो सकता है, बस आपको टाइम देना होता है। पुरानी अरेंज मैरिज में ऐसा ही होता था। कोई प्यार व्यार का झंझट नहीं, कोई गिफ्ट और चैट नहीं। एक छत के नीचे रहते रहते, 9 दिन, एक पक्ष, एक माह अथवा एक वर्ष में ऐसा सहसम्बन्ध बनता था जिसके सामने आधुनिक फिल्मों के बड़े से बड़े उदाहरण फेल है।
"यह मेरा है" #ऐसा_ममत्व_अंततः_अनुरागमें_बदल सकता है।
लेकिन भारतीय गृहस्थी टॉक्सिक होती जा रही है।
आधुनिक शिक्षा, वामपंथी साहित्य और नैरेटिव ने ऐसा खेल रचा है कि हरेक मनुष्य को अपनी चीज में कमियां दिखती है और प्रत्येक वह वस्तु जो अपनी है ही नहीं, उधर आकर्षण बढ़ रहा है।
यह महतमोगुणी और विध्वंसकारी मानसिकता भारतीय परिवार व्यवस्था के लिए नितांत हानिकारक है ही, उत्तरोत्तर प्रभावी होती जा रही है।
जो कर्म, मानव जीवन का सबसे अधिक आनंददायक, ऊर्जादायक, और समस्त कामनाओं का केंद्र था, चारों पुरुषार्थों में जिसे तीसरे स्थान पर रखा गया था, आज बुरी तरह से क्षत विक्षत है।
धर्म की धुरी डगमगाते ही अर्थ, काम और मोक्ष भी दुःसाध्य और कष्टकारी हो जाते है।
संयम और सदाचार ही आपकी रक्षा कर सकता है क्योंकि पश्चिम जैसा खुलापन आपके बस की बात नहीं।
#कुमारsचरित
कुमार एस